सामाजिक विमर्श >> चाँद अछूत अंक चाँद अछूत अंकनंद किशोर तिवारी
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इतिहास और समाजशास्त्र - दोनों ही विधा के अध्येताओं के लिए एक उपयोगी पुस्तक।
युग बदलने के बाद भी कालजयी रचना की प्रासंगिकता खत्म नहीं होती। इसी तरह कालजयी पत्रकारिता अपने समय की सीमा तोड़कर बाद के युगों के लिए भी प्रासंगिक बनी रहती है। बीसवीं सदी के तीसरे-चौथे दशक में निकलनेवाली पत्रिका चाँद में प्रकाशित रचनाओं को ऐसी ही कालजयी रचना कहा जा सकता है। इन रचनाओं से हिन्दी साहित्य का इतिहास बना। भाषा का नया रूप सामने आया। सिर्फ़ साहित्य ही नहीं, विचार के मोर्चे पर भी चाँद ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। समय-समय पर चाँद ने अनेक विशेषांक निकाले। तत्कालीन समय को उसने परिभाषित करने की कोशिश की। उस काल खण्ड के प्रमुख मुद्दे उठाए और उनका विवेचन किया। चाँद के प्रकाशन काल के दौरान स्वाधीनता-आन्दोलन उत्कर्ष पर था। एक ओर गांधीजी का अहिंसक आन्दोलन था, तो दूसरी ओर भूमिगत क्रान्तिकारी थे जो बम और पिस्तौल की बदौलत आज़ादी हासिल करना चाहते थे। चाँद ने राष्ट्रीय आन्दोलन की इन दोनों ही धाराओं का प्रतिनिधित्व किया। गांधीजी के प्रभाव में अगर उसने ‘अछूत अंक’ निकाला तो क्रान्तिकारियों के सम्मान में उसने ‘फाँसी अंक’ संयोजित किया। राष्ट्रीय आन्दोलन के बारे में चाँद की यह समग्र दृष्टि थी।
हम चाँद का ‘फाँसी अंक’ पुनःप्रकाशित कर चुके हैं। अब ‘अछूत अंक’ प्रकाशित कर रहे हैं। यह विशेषांक मई, 1927 में निकला था।
इस अंक की सामग्री का संकलन इस तरह किया गया है कि अछूत-समस्या का कोई भी पक्ष छूटने न पाए। अनेक खंडों में विभक्त इस पत्रिका का सम्पादकीय विचार खंड अत्यन्त सशक्त है। इसकी अनेक टिप्पणियों में अछूत-समस्या के उत्स की विस्तृत पहचान की गई है। इस समस्या के समाधान के रास्ते बताए गए हैं।
प्राचीन भारत में शूद्रों की स्थिति पर इधर डॉ. रामशरण शर्मा ने विस्तार से विचार किया है। चाँद ने आज से 70 साल पहले ही इस पर खोजपूर्ण लेख छापे थे जिनकी सूचनाओं का आज भी उपयोग हो सकता है। इसी तरह तत्कालीन समाज में अछूतों की स्थिति का परिचय देनेवाले लेखों में नई समाजशास्त्रीय दृष्टि अपनाई गई है। इस अंक में समाज की विभिन्न अछूत जातियों का तुलनात्मक अध्ययन पहली बार इतनी बारीकी से किया गया है।
साहित्यिक उपलब्धियों की दृष्टि से भी यह अंक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। प्रेमचन्द की कालजयी कहानी ‘मन्दिर’ इसी अंक में छपी थी। हरिऔध और रामचरित उपाध्याय की कविताएँ भी उल्लेखनीय हैं। तस्वीरों और रेखांकनों से भी तत्कालीन ‘अछूत-संसार’ को मूर्त करने का प्रयास किया गया है।
दलित-चेतना के विस्तार के इस युग में चाँद का ‘अछूत अंक’ मील के पत्थर की तरह है। इसकी सामग्री आज भी दलित चेतना को सही दिशा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
इतिहास और समाजशास्त्र - दोनों ही विधा के अध्येताओं के लिए एक उपयोगी पुस्तक।
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